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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

अध्याय - 7

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल :
सैद्धान्तिक चिन्तन एवं व्यावहारिक पक्ष

प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।

उत्तर -

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की दृष्टि आलोचना पद्धति के लिए काफी संश्लिष्ट थी परन्तु वह स्पष्टता को लिए हुए भी थी। उन्होंने सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार की अलोचनाओं में बखूबी हस्तक्षेप किया। शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि के महत्व को इस तथ्य से जाना जा सकता है कि उनके समकालीन आलोचक उनकी धरा में तो बहे ही तथा उनके बाद के आलोचकों ने भी उनकी परम्परा से जुड़कर नई धारा का ज्ञान करवाया। इस प्रकार शुक्ल जी के बाद की आलोचना उनकी दृष्टियों के समर्थन या विरोध में खड़ी इमारत सी लगती हैं। आज भी वे उतना ही महत्व रखते हैं जितना उस समय में उनके तर्क आज भी अकाटय हैं और उनकी पैनी-पारखी नजर आज भी काबिले तारीफ है। हिन्दी के लगभग 150 वर्षों की आलोचना के इतिहास में शुक्ल जी केन्द्रीय पुरुष आज भी बने हुए हैं। उनको छोड़कर किसी साहित्यिक विषय पर कोई चर्चा न शुरू की जा सकती है और न ही समाप्त। इसी से उनकी आलोचना दृष्टि की उपादेयता समझी जा सकती है। शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि पूर्णतः स्पष्ट परिपक्व एवं विकसित है। उनकी सैद्धान्तिक व व्यवहारिक आलोचना दृष्टि को निम्न रूप से समझा सकता है -

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का सैद्धान्तिक दृष्टिकोण- सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल रस सिद्धान्त के समर्थक और पोषक हैं परन्तु उन्होंने शब्दशक्ति रीति और अलंकार को कमतर महत्त्व नहीं दिया है। उन्हीं के शब्दों में शब्द-शक्ति रस गीत और अलंकार - अपने यहाँ की ये बात काव्य को स्पष्ट करने हेतु और स्वच्छ मीमांस में कितने काम के हैं, मैं समझता हूँ इनके सम्बन्ध में अब और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। देशी-विदेशी, नई-पुरानी सब प्रकार की कविताओं की समीक्षा का मार्ग इनके प्रयोग करने से सुगम होगा।

उनकी आलोचना दृष्टि सूक्ष्म तार्किक विश्लेषणात्मक व निगमनात्मक विधि पर आधारित थी। वे रसवादी लोकमंगलवादी जैसे उच्च आदर्शों को लेकर साहित्य में चलते हैं। वे हमेशा कबीर की तरह प्रत्यक्षवादी बने रहे। जाति वातावरण तथा क्षण इन तीनों तत्वों को उन्होंने काव्य की आत्मा में झांक कर देखा। उनकी स्थिति जाति समाज से जुड़ी थी। वातावरण चित्तवृत्ति को बनाने वाली स्थिति तथा क्षण वह काल था जिसमें रहकर रचनाकार ने उपसाहित्य का सृजन किया था। इन तीनों तत्वों को लेकर वे उस छत पर जा पहुँचते हैं जहाँ से खड़े होकर साहित्यकार ने अपने युग को अपनी कविता को उन कवियों में व्याप्त दर्द को लिखा और महसूस किया था। उनकी प्रत्यक्षवादी दृष्टि उनकी आलोचना को वैज्ञानिक चिंतन देती है जिसके द्वारा वे साहित्य की आलोचना करते हैं। उनकी सैद्धान्तिक मान्यताएँ चिंतामणि के निबन्धों में समाई हुई हैं। उन्होंने सैद्धान्तिक समीक्षा के प्रतिमान निश्चित किए हैं। इसे कविता क्या है, काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था, साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद रसात्मक बोध के विविधरूप काव्य और प्रकृति काव्य में अर्थ की योग्यता प्रत्यक्षानुभूति एवं रसानुभूति निबन्ध क्या है आदि निबन्धों द्वारा समझी जा सकती है। उन्होंने पारम्परिक रसवादी विवेचन जो अपने आरम्भिक दिनों के व्यापकता के बावजूद पंडित जगन्नाथ तक आते-आते संकीर्ण हो गया था उसे लोकमंगल के आदर्शवादी उच्च भावभूमि से अनुवाद कराकर पुनः उनमें विस्फोट - सा कर दिया। साहित्य में सरसता महसूस की जाने लगी। हर साहित्य को लोकमंगलवाद की कसौटी पर कसा जाने लगा। रहस्यवाद (काव्य में रहस्यवाद) की जटिलताओं से दूर जाकर इन्होंने स्पष्टता को महत्व दिया। साधारणीकरण की व्याख्या में उन्होंने एक नई अवधारणा का भी सूत्रपात किया। शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि वृहद जनवादी थी। हिन्दी शब्दसागर भूमिका जो बाद में हिन्दी साहित्य के इतिहास के रूप में आई' में उन्होंने अपनी आलोचनात्मक धारणा को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया है, जिसमें जनता और साहित्य की पारस्परिक रिश्तों को स्वीकार किया गया है। उनकी आलोचना दृष्टि की सबसे बड़ी उपलब्धि लोकमंगलवाद का मान है जिसके लट्ठे से किसी भी साहित्य की सुन्दरता आदर्शपूर्ण - सामाजिक - कल्याणपरक रीति की उत्पत्ति की मानी जा सकती है। यह कसौटी उनकी हिन्दी आलोचना को दी गई सबसे बड़ी उपलब्धि है। कविता का उद्देश्य सहृदय को लोकमंगल की भावभूमि पर पहुँचा देना है। यह कहना निश्चित ही जनतांत्रिक परम्परा को सुदृढ़ करना है। वे लोक की भूमि पर अपने कदम मजबूती से जमाकर जीवन एवं साहित्य पर दृष्टि डालते हैं और उनकी व्याख्या करते हैं। काव्यशास्त्र सम्बन्धी विवेचन में भी उन्होंने अपने दृष्टिकोण से भाव, विभाग एवं रस की पुनः व्याख्या की है। भाव उनके लिए मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष हैं। प्रत्यक्ष बोध अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गुण संश्लेषण का नाम भाव है। मुक्त सहृदय मनुष्य अपनी सत्ता को लोक सत्ता में लीन किए रहता है। लोक सहृदय के लीन होने की दशा का नाम रस दशा है। उनकी प्रत्येक दृष्टि तार्किक व मनोवैज्ञानिक आधार लिए हुए थी, रस की व्याख्या भी इससे अछूती नहीं रही।

व्यवहारिक दृष्टि- शुक्ल जी की सैद्धान्तिक समीक्षा साहित्यिक रचनाओं के आधार पर स्थापित है, अतः उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में संगति है। वे जहाँ सैद्धान्तिक प्रतिपादन में प्रवृत्त होते हैं वहाँ प्रचुर उदाहरण देकर अपने कथन को प्रमाणित कर देते हैं। उनके सिद्धान्त उस पर से थोपे हुए नहीं बल्कि साहित्य के रसास्वादन के माध्यम से प्राप्त हुए निष्कर्ष हैं वे ही उनके समीक्षा सिद्धान्त हैं।

आलोचना के लिए सहृदयता आवश्यक होती है। शुक्ल जी ने प्राचीन साहित्य की युगानुकूल व्याख्या करते हुए उसे अपने युग की सौन्दर्य दृष्टि से व्याख्या कर प्रासंगिक व सौन्दर्यवान बना दिया। तुलसीदास, सूरदास, जायसी, वाल्मीकि, कालिदास को प्रासंगिक व पुनः प्रतिष्ठित करने का श्रेय शुक्ल जी को है। वे शील और शक्ति, सौन्दर्य को किसी भी नायक का 'उत्कर्षतम गुण मानते थे। शुक्ल जी का अधिकांश महत्त्वपूर्ण लेखन भूमिका के रूप में हुआ। उनके काव्यचिंतन का विकास उनके प्रिय कवियों की व्याख्या के दौरान हुआ। इससे उन्हें हर भाव के प्रति गहरी व गूढ़ जानकारी मिल गई और उनमें अंतर करने योग्य सामर्थ्य भी। भाव या मनोविकार का विशद विवेचन चिंतामणि में मिलता है। भाव या मनोविकार, ईष्या, घृणा, क्रोध, लोभ और प्रीति, श्रद्धाभक्ति, करुणा, भय आदि का उन्होंने विशद धर्मविश्लेषण व व्याख्या की। तुलसी का भक्ति मानस की धुमभूमि आनन्द का सिद्धावस्था मलिक मुहम्मद जायसी, सूरदास, तुलसीदास का भावुकता, बिहारीलाल, घनानन्द भारतेन्दु और उनका मंडल, श्रीधर पाठक और स्वच्छन्दतावाद छायावाद आदि निबन्धों में उनकी व्यवहारिक आलोचना दृष्टि मिलती है। जिसमें उन्होंने करुणा, प्रेम, शील व आनन्द दशा की साधनावस्था तथा सिद्धावस्था को अनुभव किया है और उन सबकी लोकमंगलवादी दृष्टि से व्याख्या भी की है। आचार्य शुक्ल ने अपने सुचिंतित काव्य - प्रतिमानों का अपनी व्यावहारिक समीक्षाओं में बड़ी कुशलता से विनियोग किया। उनकी दृष्टि व्यावहारिक होते हुए भी सूक्ष्म विश्लेषण युक्त व मर्मग्रहिणी थी तथा वे आलोचना करते समय दूसरे आलोचकों से भी यही आशा करते थे उनका कथन था कि इसके लिए सूक्ष्म विश्लेषण बुद्धि और मर्म ग्रहिणी प्रज्ञा अपेक्षित है। शुक्ल जी ने स्थायी साहित्य में स्थान पाने वाले - तुलसी, जायसी, तथा सूर पर स्वतंत्र रूप में लिखी गई अपनी समीक्षाओं में इन कवियों की विचारधारा में डूबकर उनकी अंतर्वृतियों का विश्लेषण करने में अपनी सूक्ष्म बुद्धि और मर्म ग्रहिणी प्रज्ञा का परिचय दिया है।

तुलसीदास काल क्रमानुसार उनकी पहली समीक्षा कृति है। शुक्ल जी ने इसे गोस्वामी तुलसीदास के महत्व के साक्षात्कार और उनकी विशेषताओं तथा उनके साहित्य में छिपी दृष्टियों के लघु प्रयत्न के रूप में लिखा। इसमें उन्होंने तुलसीदास की भक्ति, उनके आदर्श उनकी लोकमंगलवादी दृष्टि तथा लोकादर्श का नितांत मौलिक व उत्कृष्टतम स्वरूप से विवेचन किया है। तुलसीदास चूँकि उनके प्रतिमान हैं, आदर्श हैं, समन्वय संस्थापक हैं, अतः शुक्ल जी ने उनके व्यक्तित्व व उनके काव्य की गहरी छानबीन की। किसी को महान बनाने के लिए एक बड़े आलोचक की भी आवश्यकता होती है। इस अर्थ में तुलसी का काव्य शुक्ल जी का ऋणी है। शुक्ल जी के अनुसार तुलसीदास भारतीय परम्परा समाज व संस्कृति के जीते जागते प्रतीक थे तथा उनका काव्य इसका प्रमाण बना। उनके राम शील, शक्ति व सौन्दर्य से युक्त लोकोत्तर चरित्र हैं और उनके उपास्य भी। गोस्वामी तुलसीदास के राम में भक्तों के सहृदय को अपनी ओर आकृष्ट करके उसी अपनी वृत्तियों की ओर ढालने की अद्भुत क्षमता है और यही शील उनके भक्तों के भक्ति का मूल है। शुक्ल जी का इस सन्दर्भ में कथन है कि भक्ति और शील की परस्पर स्थिति भी ठीक उसी प्रकार बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव से है जिस प्रकार आश्रय व आलम्बन की और आगे चलिए तो आश्रय और आलम्बन की परस्पर स्थिति भी ठीक उसी प्रकार से है जैसे ज्ञाता और ज्ञेय की।

शुक्ल जी वस्तु परिगणन शैली को हेय मानते थे और इसीलिए वे तुलसीदास के वस्तु परिगणन शैली की उपेक्षा की प्रशंसा करते हैं। भावों के उत्कर्षक के रूप में जब गोस्वामी जी अलंकारों को प्रयोग करते हैं तो शुक्ल जी भी इस प्रयोग का समर्थन करते हैं। शुक्ल जी मर्यादावादी थे जिनके सामाजिक आदर्श भी उच्च भावभूमि पर स्थित थे। अतः वे तुलसीदास के काव्य में भी आदर्शों व लोक-मर्यादाओं को देखते हैं। उनके रामराज्य की स्थापना की लोकमंगलवादी दृष्टि से वे अभिभूत हो जाते हैं। वे तुलसी की सहृदयता, प्रबन्धात्मक शक्ति, मेघ, भावुकता, अनुभूति प्रभाव-सभ्यता, रसवादिता आदि की प्रशंसा करते हैं। तुलसी के काव्य की विशेषताएँ शुक्ल जी की व्यावहारिक आलोचना को दृष्टि प्रदान करते हैं तथा आलोचना का निर्माण करते हैं। शुक्ल जी जैसा महान आलोचक पाकर अमर हो गया।

जायसी को शुक्ल जी ने श्रेष्ठता के दूसरे पायदान पर स्थान दिया है इसका कारण पदमावत में व्याप्त प्रबन्ध नियोजन, लोकधर्मिता तथा मानवीयता ही है। जायसी का उदात्त सहृदय एकता में विश्वास रखता है। जायसी के अनुसार हिन्दू-मुस्लिम सभी का सुख-दुख व विरह एक है। शुक्ल जी ने जायसी की अपनी दो सौ पृष्ठों की विस्तृत समीक्षा में प्रेम गाथा परम्परा जायसी का जीवन वृत्त पदमावत की कथा और उसका ऐतिहासिक आधार पद्मावत की प्रेमपद्धति ईश्वर - मुख - प्रेममत और सिद्धान्त जायसी का रहस्यवाद जायसी की जानकारी आदि अनेक विषयों पर गम्भीपूर्वक विचार किया है किन्तु उनकी प्रवृत्ति मुख्यतः जायसी की प्रबन्ध कल्पना, रस-निरूपण, भाव व्यंजना, अलंकार विधान और काव्यभाषा जैसे विषयों के विवेचन में ही रही है। शुक्ल जी ने तुलसी और जायसी के समकक्ष ही सूरदास को माना है। इस सन्दर्भ में वे सूरदास की विवेचना करते हुए लिखते हैं कि यदि हम मनुष्य जीवन के सम्पूर्ण क्षेत्रों को लेते हैं तो सूरदास की दृष्टि परिमित दिखाई पड़ती है पर यदि उनके चुने हुए श्रृंगार तथा वात्सल्य को लेते हैं तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। सूर के सहृदय से निकली प्रेम की तीन प्रबल धाराओं विनय के पदं, बाल लीला के पद और प्रेम सम्बन्धी पद से सूर ने बड़ा भारी सागर तैयार कर दिया। इस सागर में शुक्ल जी का मन रमता है।

 

शुक्ल जी ने छायावाद की उपस्थित रहस्यवादिता का विरोध किया। इसी आधार पर उन्होंने कबीर के काव्य का भी विरोध किया था। परन्तु उन्होंने अभ्यान्तर प्रभाव-साम्य के अनुसार अप्रस्तुत की योजना को छायावाद की बहुत बड़ी विशेषता माना है। शुक्ल जी ने छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद को रहस्यवाद के करीब खड़ा करके उनके समस्त काव्य को उस आनंदवाद का प्रवर्तक बना दिया जो एकांतिक प्रेम की वकालत करता है।

इस प्रकार शुक्ल जी की आलोचना पांडित्यपूर्ण, चिंतन, मौलिक विवेचना और गहन अनुशीलन का ऐतिहासिक मानदंड है। महाकवि तुलसीदास, सूरदास, जायसी, पर लिखी गयी विस्तृत समालोचनाओं तथा ग्रन्थ भूमिकाओं द्वारा जहाँ उनकी मौलिक तर्क पूर्ण और अकाटय स्थापनाएँ प्रकाश में आईं, वहीं हिन्दी समालोचना की दृष्टि व्यवस्थित और विकसित हो पाई है। जीवन की समग्रता के कारण ही आचार्य शुक्ल विरोध का सामंजस्य देखने के आग्रीही थे। उन्होंने हिन्दी की सैद्धान्तिक समीक्षा को नया तथा मौलिक रूप प्रदान किया। पाश्चात्यवादी प्रवृत्तियों एवं विचारधाराओं का गहरा ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उसे नवीन परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का श्रेय शुक्ल जी को जाता है। उनके अनुसार किसी साहित्य में उन्नति केवल शहर की भद्दी नकल से नहीं की जा सकती। बाहर से सामग्री आए खूब आए परन्तु वह कूड़ा-करकट के रूप में न इकट्ठी हो जाए उसकी कड़ी परीक्षा हो उस पर व्यापक दृष्टि से विवेचन किया जाए जिससे हमारे साहित्य के स्वतंत्र और व्यापक विकास में सहायता पहुँचाये। शुक्ल जी प्रथम ऐसे आचार्य हैं जिन्होंने हिन्दी में सैद्धान्तिक समीक्षा के स्वतन्त्र प्रतिमान को विकसित किया है तथा उनकी प्रासंगिकता को व्यावहारिक साहित्य पर करते हुए आगे बढ़ाया है। हिन्दी के मौलिक समीक्षाशास्त्र की नींव भी उन्होंने रखी तथा उसे दृढ़ आधार भी प्रदान किया। वे क्रांतिकारी यंग प्रवर्तक आलोचक थे। उन्होंने साहित्य को रीतिवादी मानसिकता से पूर्णतः मुक्त कराते हुए रस जैसे वैयक्तिक तत्व को लोकमंगल में जोड़कर उसके भीतर निहित सामाजिक पक्ष को उभारा। उन्होंने संस्कृत के मानदण्ड व अंग्रेजी समीक्षा के प्रतिमानों से भी हिन्दी आलोचना को सुसज्जित करते 'हुए साहित्य के सम्बन्ध में संगत दृष्टिकोण का निर्माण किया है। उनके इस दृष्टिकोण का आधार ज्ञान का भौतिकवादी सिद्धान्त है, जिसके अनुसार ज्ञान और भाव का आधार यह भौतिक जगत ही है। नलिन विलोचन शर्मा ने अपनी पुस्तक 'साहित्य का इतिहास दर्शन में कहा है कि शुक्ल जी से बड़ा समीक्षक संभवतः उस युग में किसी भी भारतीय भाषा में नहीं था। यह बात देखने पर उचित ठहरती है। बल्कि ऐसा लगता है कि समीक्षक के रूप में शुक्ल जी अब भी अपराजेय है। निश्चितरूपेण शुक्ल जी की आलोचना दृष्टि अत्यन्त उदात्त व्यापक जीवन दृष्टि लिए हुए लोकमंगलवादी धरातल तक फैली हुई है। निश्चितरूपेण शुक्ल जी हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष व अधिकृत आचार्य हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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